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श्री राधा रानी जी के बरसाना की ‘सुंदर कथा’

vatsalya
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सांकरी गली एक ऐसी गली है जिससे एक – एक गोपी ही निकल सकती है और उस समय उनसे श्याम सुंदर दान लेते हैं | सांकरी खोर पर सामूहिक दान होता है | श्याम सुन्दर के साथ ग्वाल बाल भी आते हैं | कभी तो वे दही लूटते हैं, कभी वे दही मांगते हैं, और कभी वे दही के लिए प्रार्थना करते हैं |
यहाँ जो ये राधा रानी का पहाड़ है वो गोरा है |
सामने वाला पहाड़ श्याम सुंदर का है और वो शिला कुछ काली है | काले के बैठने से पहाड़ काला हो गया और गोरी के बैठने से कुछ गोरा हो गया | पहले राधा रानी की छतरी है फिर श्याम सुंदर की छतरी है और नीचे मन्सुखा की छतरी है | यहाँ दान लीला होती है | यहाँ नन्दगाँव वाले दही लेने आये थे एकादशी में तो सखियों ने पकड़कर उनकी चोटी बांध दी थी | श्याम सुंदर की चोटी ऊपर बाँध देती हैं और मन्सुखा की चोटी नीचे बांध देती हैं |
मन्सुखा चिल्लाता है कि हे कन्हैया इन बरसाने की सखियों ने हमारी चोटी बांध दी हैं |जल्दी से आकर के छुड़ा भई , तो श्याम सुंदर बोलते हैं कि अरे ससुर मैं कहाँ से छुड़ाऊं | मेरी भी चोटी बंधी पड़ी है | सखियाँ दोनों के साथ-साथ सब की चोटी बाँध देती हैं | और फिर सखियाँ कहती हैं कि चोटी ऐसे नहीं खुलेगी | राधा रानी की शरण में जाओ तब तुम्हारी चोटी खुलेगी | सब श्री जी की शरण में जाते हैं और प्रार्थना करते हैं | तब श्री जी की आज्ञा से सब की चोटी खुलती हैं | श्री जी कहती हैं कि इनकी चोटी खोल दो | श्याम सुंदर प्यारे को इतना कष्ट क्यों दे रही हो ? गोपी बोली कि ये चोटी बंधने के ही लायक हैं |
ये लीला यहाँ राधाष्टमी के तीन दिन बाद होती है | उस दिन यहाँ श्याम सुंदर मटकी फोड़ते हैं और नन्दगाँव के सब ग्वाल बाल आते हैं | श्री जी और सखियाँ मटकी लेकर चलती हैं तो श्याम सुन्दर कहते हैं कि तुम दही लेकर कहाँ जा रही हो ? तो सखियाँ कहती हैं कि ऐ दही क्या तेरे बाप का है ? ऐसो पूछ रहे हो जैसे तेरे नन्द बाबा का है | दही तो हमारा है | वहाँ से श्याम सुंदर बातें करते हुए चिकसौली की ओर आते हैं और यहाँ छतरी के पास उनकी दही कि मटकी तोड़ देते हैं | जहाँ मटकी गिरी है वो जगह आज भी चिकनी है वो सब लोग अभी देख सकते हैं |
यहाँ बीच में (सांकरी खोर में) ठाकुर जी के हथेली व लाठी के चिन्ह भी हैं | ये सब ५००० वर्ष पुराने चिन्ह हैं | ये सांकरी गली दान के लिये पूरे ब्रज में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है | वैसे तो श्याम सुंदर हर जगह दान लेते थे पर दान की ३-४ स्थलियाँ प्रसिद्ध हैं | ये हैं बरसाने में सांकरी खोर, गोवर्धन में दान घाटी व वृन्दावन में बंसी वट , पर इन सब में सबसे प्रसिद्ध सांखरी खोर है क्योंकि एक तो यहाँ पर चिन्ह मिलते हैं और दूसरा यहाँ आज भी मटकी लीला चल रही है | राधाष्टमी के पांच दिन के बाद नन्दगाँव के गोसाईं बरसाने में आते हैं |
यहाँ आकर बैठते हैं उस दिन पद गान होता है |
(बरसानो असल ससुराल हमारो न्यारो नातो — भजन) मतलब बरसाना तो हमारी असली ससुराल है ! आज तक नन्दगाँव और बरसाने का सम्बन्ध चल रहा है जो रंगीली के दिन दिखाई पड़ता है | सुसराल में होली खेलने आते हैं नन्दलाल और गोपियाँ लट्ठ मारती हैं| वो लट्ठ की मार को ढाल से रोकते हैं और बरसाने की गाली खाते हैं | यहाँ मंदिर में हर साल नन्दगाँव के गोसाईं आते हैं और बरसाने की नारियाँ सब को गाली देती हैं | इस पर नन्दगाँव के सब कहते हैं “वाह वाह वाह !”
इसका मतलब कि और गाली दो | ऐसी यहाँ की प्रेम की लीला है | बरसाने की लाठी बड़ी खुशी से खाते हैं , उछल – उछल के और बोलते हैं कि जो इस पिटने में स्वाद आता है वो किसी में भी नहीं आता है | बरसाने की गाली और बरसाने की पिटाई से नन्दगाँव वाले बड़े प्रसन्न होते हैं | ऐसा सम्बन्ध है बरसाना और नन्दगाँव में |
साँकरी खोर में दान लीला भी सुना देते हैं | साँकरी खोर की लीला सुना रहे हैं | इसे मन से व भाव से सुनो | ध्यान लगाकर सुनोगे तो लीला दिखाई देगी | साँकरी खोर में गोपियाँ जा रही हैं | दही की मटकी है सर पर | वहाँ श्री कृष्ण मिले | कृष्ण के मिलने के बाद वो कृष्ण के रूप से मोहित हो जाती हैं और लौट के कहती हैं कि वो नील कमल सा नील चाँद सा मुख वाला कहाँ गया ? अपनी सखी से कहती हैं कि मैं साँकरी खोर गयी थी |
सखी हों जो गयी दही बेचन ब्रज में , उलटी आप बिकाई |
बिन ग्रथ मोल लई नंदनंदन सरबस लिख दै आई री
श्यामल वरण कमल दल लोचन पीताम्बर कटि फेंट री
जबते आवत सांकरी खोरी भई है अचानक भेंट री
कौन की है कौन कुलबधू मधुर हंस बोले री
सकुच रही मोहि उतर न आवत बलकर घूंघट खोले री
सास ननद उपचार पचि हारी काहू मरम न पायो री
कर गहि बैद ठडो रहे मोहि चिंता रोग बतायो री
जा दिन ते मैं सुरत सम्भारी गृह अंगना विष लागै री
चितवत चलत सोवत और जागत यह ध्यान मेरे आगे री
नीलमणि मुक्ताहल देहूँ जो मोहि श्याम मिलाये री
कहै माधो चिंता क्यों विसरै बिन चिंतामणि पाये री ||
तो एक पूछती है कि तू बिक गई ? तुझे किसने खरीदा ? कितने दाम में खरीदा ? बोली मुझे नन्द नन्दन ने खरीद लिया | मुफ्त में खरीद लिया | मेरी रजिस्ट्री भी हो गई | मैं सब लिखकर दे आयी कि मेरा तन, मन, धन सब तेरा है | मैं आज लिख आयी कि मैं सदा के लिए तेरी हो गई | मैं वहाँ गई तो सांवला सा, नीला सा कोई खड़ा था | नील कमल की तरह उसके नेत्र थे, पीताम्बर उसकी कटि में बंधा हुआ था | मैं जब आ रही थी तो अचानक मेरे सामने आ गया | मैं घूँघट में शरमा रही थी |
उसने आकर मेरा घूँघट खोल दिया और मुझसे बोला है कि तू किसकी वधु है ? किस गाँव की बेटी है ? वो मेरा अता पता पूछने लग गया |
ये वही ब्रज है,
यहाँ चलते – चलते अचानक कृष्ण सामने आ जाते हैं,
इसीलिए तो लोग ब्रज में आते हैं |
ये वही ब्रज है,
लोग भगवान को ढूँढते हैं और भगवान यहाँ स्वयं ढूंढ रहे हैं और
गोपियों का अता पता पूछ रहे हैं |
ये वही ब्रज है,
गोपी बोल नहीं रही है लज्जा के कारण और
श्याम उसका घूँघट खोल रहे हैं |

गोपी आगे कहती है कि जिस दिन से मैंने उन्हें देखा है मुझे सारा संसार जहर सा लगता है | कहाँ जाऊं क्या करूं ? बस एक ही बात है दिन रात मेरे सामने आती रहती हैं | सोती हूँ तो, जागती हूँ तो उसकी ही छवि रहती है मेरे सामने | कौन सी बात ? किसकी छवि ?
गोपाल की !
घर में मेरी सास नन्द कहती हैं कि हमारी बहु को क्या हो गया है ?
वैद्य बुलाया गया कि मुझे क्या रोग है ? वैद्य ने नबज देखी और देखकर कहा सब ठीक है | कोई रोग नहीं है | केवल एक ही रोग है – चिंता ! कोई जो मुझे श्याम का रूप दिखा दे तो मैं उसको नील मणि दूंगी | जो मुझे श्याम से मिला दे, मुझे मेरे प्यारे से मिला दे | उसे मैं सब कुछ दे दूंगी |
बरसाना (१५संहिता अध्याय श्री गर्ग)
पृष्ठ ७८-७९
एक साँकरी खोर की बहुत मीठी लीला है |
एक दिन की बात है कि राधा रानी अपने वृषभान भवन में बैठी थीं | श्री ललिता जी व श्री विशाखा जी गईं और बोलीं कि हे लाड़ली तुम जिनका चिन्तन करती हो वो श्री कृष्ण – श्री नंदनंदन नित्य यहाँ वृषभानुपुर में आते हैं | वे बड़े ही सुन्दर हैं !
श्री राधा रानी बोलीं तुम्हें कैसे पता कि मैं किसका चिंतन करती हूँ ? प्रेम तो छिपाया जाता है |
ललिता जी व विशाखा जी बोलीं हमें मालूम है तुम किनका चिन्तन करती हो | श्रीजी बोलीं कि बताओ किसका चिन्तन करती हूँ ?
देखो ! कहकर उन्होंने बड़ा सुंदर चित्र बनाया श्री कृष्ण का | चित्र देखकर श्री लाड़ली जी प्रसन्न हो गयीं और फिर बोलीं कि तुम हमारी सखी हो | हम तुमसे क्या कहें ?
चित्र को लेकर के वो अपने भवन में लेट जाती हैं और उस चित्र को देखते – देखते उनको नींद आ जाती है | स्वप्न में उनको यमुना का सुन्दर किनारा दिखाई पड़ा | वहाँ भांडीरवन के समीप श्री कृष्ण आये और नृत्य करने लग गये | बड़ा सुंदर नृत्य कर रहे थे की अचानक श्री लाड़ली जी की नींद टूट गई और वो व्याकुल हो गयीं | उसी समय श्री ललिता जी आती हैं और कहती हैं कि अपनी खिड़की खोलकर देखो | सांकरी गली में श्री कृष्ण जा रहे हैं | श्री कृष्ण नित्य बरसाने में आते हैं | एक बरसाने वाली कहती है कि ये कौन आता है नील वर्ण का अदभुत युवक नव किशोर अवस्था वाला , वंशी बजाता हुआ निकल जाता है |
आवत प्रात बजावत भैरवी मोर पखा पट पीत संवारो |
मैं सुन आली री छुहरी बरसाने गैलन मांहि निहारो
नाचत गायन तानन में बिकाय गई री सखि जु उधारो
काको है ढोटा कहा घर है और कौन सो नाम है बाँसुरी वालो
श्री कृष्ण आ रहे हैं | कभी-कभी वंशी बजाते-बजाते नाचने लग जाते हैं | इसीलिए उन्हें श्री मद्भागवत में नटवर कहा गया है | नटवर उनको कहते हैं जो सदा नाचता ही रहता है | सखी ये कैसी विवश्ता है कि मैं अधर में खो गई और मिला कुछ नहीं | कौन है ? कहाँ रहता है ? बड़ा प्यारा है ! किसका लड़का है ? इस बांसुरी वाले का कोई नाम है क्या ?
ललिता जी कहती हैं कि देखो तो सही, श्री कृष्ण आ रहे हैं | आप अपनी खिड़की से देखो तो सही | वृषभानु भवन से खिड़की से श्री जी झांकती हैं तो सांकरी गली में श्री कृष्ण अपनी छतरी के नीचे खड़े दिखते हैं | उन्हें देखते ही उनको प्रेम मूर्छा आ जाती है | कुछ देर बाद जब सावधान होती हैं तो ललिता जी से कहती हैं कि तूने क्या दिखाया ? मैं अपने प्राणों को कैसे धारण करू ?

ललिता जी श्री कृष्ण जी के पास जाती हैं और उनसे श्री जी के पास चलने का अनुग्रह करती हैं |

ये राधिकायाँ मयि केशवे मनागभेदं न पश्यन्ति हि दुग्धशौवल्यवत् |
त एव में ब्रह्मपदं प्रयान्ति तद्धयहैतुकस्फुर्जितभक्ति लक्षणाः ||३२||

वहाँ श्री कृष्ण कहते हैं कि हे ललिते, भांडीरवन में जो श्री जी के प्रति प्रेम पैदा हुआ था वो अद्भुत प्रेम था | मुझमें और श्री जी में कोई भेद नहीं है | दूध और दूध की सफेदी में कोई भेद नहीं होता है | जो दोनों को एक समझते हैं वो ही रसिक हैं | थोड़ी सी भी भिन्नता आने पर वो नारकीय हो जाते हैं |
ये बात शंकर जी ने भी कहा था गोपाल सहस्रनाम में |
गौर तेजो बिना यस्तु श्यामं तेजः समर्चयेत् |
जपेद् व ध्यायते वापि स भवेत् पातकी शिवे ||
हे पार्वती ! बिना राधा रानी के जो श्याम की अर्चना करता है वो तो पातकी है |
श्री कृष्ण बोले कि हम चलेंगे | उनकी बात सुनकर ललिता जी आती हैं और चन्द्रानना सखी से पूछती हैं कि कोई ऐसा उपाए बताओ जिससे श्री कृष्ण शीध्र ही वश में हो जाँय |
“गर्ग संहिता” वृन्दावन खंड अध्याय १६

तुलसी का माहात्म्य, श्री राधा द्वारा तुलसी सेवन – व्रत का अनुष्ठान तथा दिव्य तुलसी देवी का प्रत्यक्ष प्रकट हो श्री राधा को वरदान

गर्ग संहिता वृंदावन खंड अध्याय १७

चन्द्रानना बोलती हैं कि हमने गर्ग ऋषि से तुलसी पूजा की महिमा सुना था | राधा रानी यहाँ पर तुलसी की आराधना करती हैं और गर्ग जी को बुलाकर आश्विनी शुक्ल पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक व्रत का अनुष्ठान करती हैं |

उसी समय तुलसी जी प्रगट होती हैं और श्री राधा रानी को अपनी भुजाओं में लपेट लेती हैं और कहती हैं कि हे राधे बहुत शीध्र श्री कृष्ण से तुम्हारा मिलन होगा |

उसी समय श्री कृष्ण एक विचित्र गोपी बनकर के आते हैं | अदभुत गोपी ! ऐसी सुन्दरता जिसका वर्णन नहीं हो सकता | गर्ग ऋषि ने उनकी सुन्दरता का वर्णन किया है कि उंगलियों में अंगूठियाँ , कौंधनी, नथ और बड़ी सुंदर बेनी सजाकर बरसाने में आते हैं और वृषभान के भवन में पहुंचते हैं | चार दीवार हैं उस भवन में और वहाँ पर बहुत पहरा है | उन पहरों में नारी रूप में पहुँच जाते हैं |

तो वहाँ क्या देखते हैं कि बड़ा सुंदर भवन है और सखियाँ अद्भुत सुन्दर वीणा मृदंग श्री राधा रानी को सुना रही हैं | उनको रिझा रही हैं | दिव्य पुष्प हैं, लताएं हैं, पक्षी हैं, जो श्री राधा नाम का उच्चारण कर रहे हैं | राधा रानी उस समय टहल रही थीं | श्री राधा रानी ने देखा कि एक बहुत सुंदर गोपी आयी है | उस गोपी को देखकर वे मोहित हो जाती हैं और उनको अपने पास बैठा लेती हैं | राधा रानी गोपी को आलिंगन करती हैं और कहती हैं कि अरे तुम ब्रज में कब आई ? हमने ऐसी सुन्दरी आज तक ब्रज में नहीं देखी है | तू जहाँ रहती है वो गाँव धन्य है | तुम हमारे पास नित्य आया करो | तुम्हारी आकृति तो श्री कृष्ण से मिलती जुलती है |

पर श्री जी पहचान नहीं पायीं | ये विचित्र लीला है | भगवान की लीला शक्ति है | श्री जी बोलीं कि जाने क्यों मेरा मोह तुम में बढ़ रहा है ?

तू मेरे पास बैठ जा | वो जब राधा रानी के पास बैठी तो बोली कि मेरा उत्तर की ओर निवास है (उत्तर में नन्दगाँव है) और हे राधे मेरा नाम है गोप देवी | हे राधे मैंने तेरे रूप की बड़ी प्रशंसा सुनी है कि तुम बड़ी सुंदर हो | इसीलिए मैं तुम्हें देखने आ गयी | तुम्हारा ये वृषभान भवन बड़ा सुंदर है जिससे लवन लताओं की अद्भुत सुगंधी आती है | फिर दोनों वहाँ बैठकर गेंद खेलती हैं |
संध्या होने पर गोप देवी कहती है कि अब मैं जाऊंगी और प्रातः काल आऊंगी | जब जाने का नाम लेती है तो श्री राधा रानी की आँखों में आंसू बहने लगते हैं | बोलती हैं कि सुन्दरी तू क्यों जा रही है ? पर गोप देवी यह कह कर चली जाती है कि कल प्रात: काल आऊंगी | रात भर श्री जी प्रतीक्षा करती रहीं |
उधर नन्द नंदन भी रात भर व्याकुल रहे | प्रातः काल फिर वे गोप देवी का रूप बना कर आते हैं तो श्री राधा रानी बहुत प्रेम से मिलती हैं |
राधा रानी बोलीं कि हे गोप देवी तू आज उदास लग रही है | क्या कष्ट है ? गोप देवी बोली कि हाँ राधे रानी हमें बहुत कष्ट है और उस कष्ट को दूर करने वाला दुनिया में कोई नहीं है | राधा रानी बोलीं कि नहीं गोप देवी तुम बताओ इस ब्रह्माण्ड में भी अगर कोई तुमको कष्ट दे रहा होगा तो मैं अपनी शक्ति से उसको दंड दूंगी |
गोप देवी नें कहा कि राधे तुम मुझे सताने वाले को दंड नहीं दे सकती | बोलीं क्यों ? बोले मुझे मालूम है तुम उसे दंड नहीं दे सकती हो | श्री जी बोलीं बताओ तो सही वो कौन है ? बोले अच्छा तो सुनो |
मैं एक दिन सांकरी गली में आ रही थी | एक नन्द का लड़का है | उसकी पहचान बताती हूँ | उसके हाथ में एक वंशी और एक लकुटी रहती है | उसने मेरी कलाई को पकड़ लिया और मुझसे बोला कि मैं यहाँ का राजा हूँ , कर लेने वाला हूँ | जो भी यहाँ से निकलता है मुझे दान देता है | तुम मुझे दही का दान दे जाओ | मैंने कहा कि लम्पट हट जा मेरे सामने से | मैं दान नहीं देती ऐसा कहने पर उस लम्पट ने मेरी मटकी उतार ली और मेरे देखते – देखते उस मटकी को फोड़ दिया | दही सब पी गया, मेरी चुनरी उतार ली और हँसता – हँसता चला गया |
यहाँ पर गोप देवी ने कृष्ण की बड़ी निंदा की है कि वो जात का ग्वाला है | काला कलूटा है | न रंग है न रूप है | न धनवान है न वीर है | हे राधे तुम मुझसे छुपाती क्यों हो ? तुमने ऐसे पुरुष से प्रेम किया है ! ये ठीक नहीं किया | यदि तुम कल्याण चाहती हो तो उस धूर्त को, उस निर्मोही को अपने मन से निकाल दो |
इतना सुनने के बाद श्री राधा रानी बोलीं अरी गोप देवी तेरा नाम गोप देवी किसने रखा ? तू जानती नहीं ब्रह्मा, शिव जी भी श्री कृष्ण की आराधना करते हैं |
यहाँ पर श्री कृष्ण की भगवत्ता का राधा रानी ने बड़ा सुंदर वर्णन किया है !
राधा रानी बोलीं कि जितने भी अवतार हैं – दत्तात्रैय जी, शुकदेव जी, कपिल भगवान्, आसुरि और आदि ये सब भगवान श्री कृष्ण की आराधना करते हैं | और तू उनको काला कलूटा ग्वाला कहती है ! उनके सामान पवित्र कौन हो सकता है | गौ रज की गंगा में जो नित्य नहाते हैं | उनसे पवित्र क्या कोई हो सक ता है ? क्या गौ से अधिक पवित्र करने वाली कोई वस्तु है संसार में |
राधा रानी बहुत बड़ी गौ भक्त थीं | यहाँ तक कि जब श्री कृष्ण ने वृषासुर को मारा था तो राधा रानी और सब गोपियों ने कहा था कि श्री कृष्ण हम तुम्हारा स्पर्श नहीं करेंगी | तुम को गौ हत्या लग गई है | हम तुम्हें छू नहीं सकती | ऐसी गौ भक्त थीं राधा रानी |
आगे राधा रानी कहती हैं कि तू उनकी बुराई कर रही है ? वो नित्य गायों का नाम जपते हैं | दिन रात गायों का दर्शन करते हैं | मेरी समझे में जितनी भी जातियाँ होगीं उनमें से सबसे बड़ी गोप जाति है | क्यों ? क्योंकि ये गाय की सेवा करते हैं | इसलिए गोप वंश से अधिक बड़े कोई देवता भी नहीं हो सकते | गोप देवी तू श्याम को काला कलूटा बताती है ? तो बता उस श्याम से भी कहीं अधिक सुंदर वस्तु है | स्वयं भगवान नीलकंठ शिव भी उनके पीछे दिन रात दौड़ते रहते हैं | राधा रानी बोलीं कि वे जटाजूट धारी, हलाहल विष को भी पीने वाले शक्तिधारी, सर्पों का आभूषण पहनने वाले उस काले कलूटे के लिए ब्रज में दौड़ते रहते हैं | तू उसे काला कलूटा कहती है ? सारा ब्रह्माण्ड जिस लक्ष्मी जी के लिये तरसता है वे लक्ष्मी जी उनके चरणों में जाने के लिये तपस्या करती हैं |
तू उन्हें निर्धन कहती है ? निर्धन ग्वाला कहती है ? जिनके चरणों को लक्ष्मी तरस रही हैं, तू कहती है कि उनमें न बल है और न तेज है | बता वकासुर, कालिया नाग, यमुलार्जुन, पूतना, आदि का वध करने वाला क्या निर्बल है ? कोटि – कोटि ब्रह्माण्ड का एक मात्र सृष्टा और उनको तू बलहीन कहती है ? सब जिनकी आराधना करते हैं तू उन्हें निर्दय कहती है ? वो अपने भक्तों के पीछे – पीछे घूमा करते हैं और कहते हैं कि भक्तों की चरण रज हमको मिल जाये और तू उनको तू निर्दय कहती है ?
जब ऐसी बातें सुनी तो गोप देवी बोली राधे तुम्हारा अनुभव अलग है और हमारा अनुभव अलग है | ठीक है कालिया नाग को मारा होगा इन्होंने लेकिन ये कौन सी सुशीलता थी कि मैं अकेली जा रही थी और मुझ अकेली की उन्होंने कलाई पकड़ ली | ये भी क्या कोई गुण हो सकता है ?
गोप देवी की बात सुनकर राधा रानी बोलीं कि तू इतनी सुंदर होकर के भी उनके प्रेम को नहीं समझ सकी ? बड़ी अभागिन है | तेरा सौभाग्य था पर अभागिन तुमने उसको अनुचित समझ लिया | तुमसे अभागिन संसार में कोई नहीं होगा |

गोप देवी बोली तो मैं क्या करती ? अपना सौभाग्य समझ के क्या अपना शील भंग करवाती ? श्री राधा रानी बोलीं अरी सभी शीलों का सार, सभी धर्मो का सार तो श्री कृष्ण ही हैं | तू उसे शील भंग समझती है?
बात बढ़ गई | तो गोप देवी बोली कि अगर तुम्हारे बुलाने से श्री कृष्ण यहाँ आ जाते हैं तो मैं मान लुंगी कि तुम्हारा प्रेम सच्चा है और वो निर्दय नहीं है | और यदि नहीं आये तो ? तो राधा रानी बोलीं कि देख मैं बुलाती हूँ और यदि नहीं आये तो मेरा सारा धन, भवन, शरीर तेरा है |
शर्त लग गई प्रेम की | इसके बाद श्री जी बैठ जाती हैं आसन लगाकर और मन में श्री कृष्ण का आह्वान करने लग जाती हैं | बड़े प्रेम से बुलाती हैं | श्री कृष्ण का एक – एक नाम लेकर बुलाती हैं |
श्यामेति सुंदरवरेति मनोहरेति कंदर्पकोटिललितेति सुनागरेति |
सोत्कंठमह्नि गृणती मुहुराकुलाक्षी सा राधिका मयि कदा नु भवेत्प्रसन्ना||
(श्री राधासुधानिधी ३७)
इस श्लोक का मतलब मुझे एक बार पंडित हरिश्चंद्र जी ने समझाया था |
पहले तो राधा रानी ने ‘श्याम’ कहा और उसके बाद तुरंत बोलीं ‘सुंदर’ ताकि कहीं कोई ऐसा नहीं समझ ले कि श्याम तो काला होता है , तो तुरंत उसको सम्भाल लिया | अच्छा फिर सोचा सुंदर भी बहुत से होते हैं लेकिन सौत को सौत की सुन्दरता बुरी लगती है | अगर चित्त नहीं लुटा, अगर मन नहीं लुटा तो सुन्दरता किस काम की तो उन्होंने तुरंत कहा कि मन को हरण कर लेते हैं |
तो बोले कि मन तो गोद का एक बच्चा भी हर लेता है | बोलीं मन हरण करने का ढंग दूसरा है | बड़ा चतुर है | फिर सोचने लगी सुंदर हो पर चतुर नहीं हुआ तो किस काम का ? प्रेम में चतुरता तो चाहिये , नहीं तो भाव ही नहीं समझ पायेंगे | श्री जी बोलीं भाव समझने वाला है !
इस तरह से श्री कृष्ण का आह्वान कर रही थीं | गोप देवी जो बैठी हुई थी उसका शरीर कुछ कांपने लगा | जैसे ही प्रेम का आकर्षण बढ़ा तो श्री कृष्ण समझ गये कि अब ये हमारा रूप छूटने वाला है | प्रेम में अद्भुत शक्ति होती है | श्री कृष्ण के शरीर में रोमांच होने लग गया और बोले कि अब मैं संभाल नहीं सकता अपने आपको |
उन्होंने देखा कि राधा रानी के नेत्रों में आंसू थे और वे मुख से श्री कृष्ण का नाम ले रही थीं |तुरंत श्री कृष्ण अपना रूप बदलकर श्री राधे राधे कहते आये | राधा रानी ने देखा कि श्री कृष्ण खड़े हैं | श्याम सुंदर ने कहा कि हे लाड़ली जी आपने हमें बुलाया इसलिये मैं आ गया | आप आज्ञा दीजिये | श्री जी चारों ओर देखने लगीं |
श्री कृष्ण बोले आप किसको देख रही हैं | मैं तो सामने खड़ा हूँ | बोली मैं तुम्हें नहीं उस गोप देवी को देख रही हूँ | कहाँ गई ? श्री कृष्ण बोले कौन थी ? कोई जा तो रही थी जब मैं आ रहा था | राधा रानी ने सारी बात बताई तो बोले कि आप बहुत भोली हैं | अपने महल में ऐसी नागिनों को मत आने दिया करो |
(ये है सांकरी खोर की लीला)
ब्रज भक्ति विलास के मत में – बरसाने में ब्रह्मा एवं विष्णु दो पर्वत हैं | विष्णु पर्वत विलास गढ़ है शेष ब्रह्मा पर्वत है | दोनों के मध्य सांकरी गली है | जहाँ दधि दान लीला सम्पन्न होती है |
सांकरी – संकीर्ण एवं खोर – गली | सभी आचार्यों ने यहाँ की लीला गाई है | श्री हित चतुरासी – ४९
ये दोउ खोरि, खिरक, गिरि गहवर
विरहत कुंवर कंठ भुज मेलि |
अष्टछाप में परमानंद जी ने भी सांकरी खोर की लीला गाई है |
परमानन्द सागर २७३
आवत ही माई सांकरी खोरि |
हित चतुरासी – ५१
दान दै री नवल किशोरी |
मांगत लाल लाडिलौ नागर
प्रगत भई दिन- दिन चोरी ||
महावाणी सोहिली से
सोहिली रंग भरी रसीली सुखद सांकरी खोरि ||
केलिमाल – पद संख्या ६२
हमारौ दान मारयौ इनि | रातिन बेचि बेचि जात ||
घेरौ सखा जान ज्यौं न पावैं छियौ जिनि ||
देखौ हरि के ऊज उठाइवे की बात राति बिराति
बहु बेटी काहू की निकसती है पुनि |
श्री हरिदास के स्वामी की प्रकृति न फिरि छिया छाँड़ौ किनि ||
सांकरी खोर में दधि मटकी फूटने का चिन्ह व श्री कृष्ण की हथेली का चिन्ह भी है | विलासगढ़ की ओर का पर्वत कृष्ण पक्ष का होने से कुछ श्याम है, जिस पर ऊपर श्री कृष्ण की छतरी और नीचे मधु मंगल की छतरी है | दधिदान के अतिरिक्त यहाँ चोटी बन्धन लीला भी हुई थी जिसमें सखियों ने नटखट कृष्ण और मधु मंगल आदि की अलग अलग चोटी बाँधी थी | पीछे ‘श्री जी’ ने कृपा वश छुड़ाया | यह लीला इस गली में प्रति वर्ष भाद्र शुकल एकादशी को होती है , तथा दधिदान लीला त्रयोदशी में होती है
जय जय श्री राधे

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