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तुम किसी को प्यार क्यों करते हो? क्या उनके गुणों के लिए,या मित्रता के लिए या अपनेपन के कारण?
अपनत्व महसूस किये बिना,केवल उनके गुणों के लिए तुम किसी से प्रेम करते हो तब वह प्रेम स्थाई नहीं रहता क्यों कि कुछ समय बाद गुण बदल जाते है और वह प्रेम डगमगा जाता है परन्तु जब प्रेम आत्मीयता के कारण होता है तब वह प्रेम जन्म-जन्मान्तरों तक रहता है/ लोग कहते है “मैं ईश्वर से प्रेम करता हूँ क्याकि वे महान है /” और यदि यह पाया जाये कि ईश्वर भी साधारण है,हमारे जैसे ही एक व्यक्ति है?तब तुम्हारा प्रेम तुरंत समाप्त हो जायेगा/यदि तुम ईश्वर से इसलिए प्रेम करते हो क्योकि वे तुम्हारे अपने है,तब वे चाहे जैसे भी हो,चाहे वे रचना करे या विनाश,तुम फिर भी उन्हें प्रेम करते ही हो तो प्रेम सर्वश्रेष्ठ है / अपनेपन का प्रेम स्वयं के प्रति प्रेम के समान है/
प्रेम के क्या चिन्ह है?जब तुम किसी को प्रेम करते हो,तो उनमें कोई बुराई नहीं देखते/तुम्हें लगता है कि तुमने उनके लिए पर्याप्त नहीं किया:जितना अधिक तुम करते हो,उससे और अधिक तुम उनके लिए करना चाहते हो,वे हमेशा तुम्हारें मन में रहते है/साधारण चीजें भी विशेष हो जाती है उनके लिए सब कुछ सर्वश्रेष्ठ चाहते हो /
जब प्रेम चमकता है,यह सच्चिदानंद है/
जब प्रेम बहता है,यह अनुकम्पा है/
जब प्रेम उफनता है,यह क्रोध है/
जब प्रेम सुलगता है,यह ईर्ष्या है/
जब प्रेम नकारता है,यह घृणा है/
जब प्रेम सक्रिय है,यह सम्पूर्ण है/
जब प्रेम में ज्ञान है,यह “मैं”हूँ /
केवल वही सच्चा प्रेम कर सकता है जिसने त्याग किया है/ जिस मात्रा में तुम त्याग करते हो,वही तुम्हारी प्रेम करने की क्षमता है/ प्रायः व्यक्ति सोचते है कि वैरागी प्रेम नहीं कर सकते,जो प्रेम करते है,वे त्याग नहीं कर सकते /इसका कारण है कि तथाकथित वैरागी प्रेमी नहीं प्रतीत होते और जो प्रेमी है,वे बहुत अधिकार जमाते है और बेबस होते है/सच्चा प्रेम अधिकार नहीं जताता:यह स्वतंत्रता लाता है-और, वैराग और कुछ नहीं स्वतंत्रता ही है/केवल स्वतंत्रता में ही प्रेम पूरी तरह खिल सकता है/ प्रेम में तुम कहते हो “मुझे और कुछ नहीं चाहिए,मुझे केवल यही चहिये/” वैराग भी यही कहता है “मुझे कुछ नहीं चाहिए,मैं मुक्त हूँ/” प्रेम में और कोई इच्छा नहीं/वैराग में कोई इच्छा ही नहीं / प्रेम और वैराग,विपरीत प्रतीत होते हुए भी एक ही सिक्के के दो पहलू है/ केवल वैराग भी प्रेम और ख़ुशी को कायम रख सकता है/ वैराग के बिना प्रेम दुःख,आधिपत्य,ईर्ष्या और क्रोध में बदल जाता है / वैराग तृप्ति लाता है और तृप्ति प्रेम को पोषण करती है / वास्तविक वैराग ज्ञान और प्रज्ञा से उत्पन्न होता है-काल और स्थान के आधार पर,इस विशाल ब्रम्हांड से अनुभव में मिला जीवन का ज्ञान /
पूज्य श्री श्री रविशंकर जी महाराज के प्रवचनों से साभार
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