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आज सारी दुनिया के देवस्थानों में इतनी भीड़ उमड़ती है फिर भी मानव का जीवन विभिन्न प्रकार के कलुशों और कलहों से भरा हुआ है क्यों?कारण स्पष्ट है कि हम केवल दिखावे के लिए देवालयों में जाते हैं/मन का एक भी गहरा भाव लेकर हम भगवान के विग्रह के सामने नहीं जाते/उनके द्वारा दिए गए मानव जीवन के प्रति हम अपनी आखों में आंसू भरकर कभी उनका आभार,धन्यवाद नहीं करते/तीसरे दुष्क्रतीय ऐसे होते है जो परम ज्ञानी होते हुए भी माया के प्रभाव से ज्ञान शून्य जैसे हो जाते हैं/ये महान दार्शनिक,साहित्यकार,वैज्ञानिक आदि होते हुए भी पथभ्रष्ट हो जाते है अर्थात जगत के विषय विकारों में पड़कर ये इश्वर भक्ति की अवज्ञा-अवहेलना आरंभ कर देते है एवं कभी-कभी तो स्वयं को ही इश्वर के रूप में स्थापित करने की कोशिश शुरू कर देते हैं/ यहाँ तक कि कई बार तो प्रपंचियों द्वारा हमारे महान धर्मग्रंथों पर टीका-टिप्पड़ी करके ही विषयांतर करने के कुत्सित प्रयत्न किये गए/ऐसे प्रयत्नों ने समाज को हमेशा से धर्म पथ से भटकाने का ही कार्य किया है/ऐसे व्याख्याकार न तो स्वयं भगवान की शरणागत हुए और न ही समाज को उसका पालन करने की शिक्षा ही दी/
चौथी प्रकृति में ऐसे लोग आते है जो खुले तौर से नास्तिक होते है और परमेश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हैं/वे कहते फिरते है कि परमेश्वर इस संसार में अवतरित हो ही नहीं सकते/ श्रीमद भगवतगीता में इस बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि-जो नास्तिक हैं वह द्वेषवश अपनी बुद्धि से पैदा किये हुए अनेक अवतारों को प्रस्तुत कर परमेश्वर को नकारता है/दुष्ट प्रवृति तथा उनके दुष्कृत्यों से भरे पड़े संसार में इन सबके बावजूद भी शास्त्रोक्त विधि सम्मत तरीकों से आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले लोगों की संख्या भी bahuteri है/ वे प्रभु की भक्तिधारा में डूबकर सामाजिक नियमों,विधि-विधानों तथा नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए मानवता के हित में संलग्न रहते है/ऐसे भक्तों की भी चार श्रेड्रिया होती है/पहले वे जो पीड़ित हैं,दूसरे वे जिन्हें धन की आवश्कता है,तीसरे वे जिन्हें जिज्ञासा है और चौथे वे जिन्हें परम सत्य का ज्ञान है/ये सारे लोग विभिन्न परिस्थितियों में परमेश्वर की भक्ति करने आते है/लेकिन ये भी शुद्ध भक्त नहीं है क्योकि ये भक्ति के बदले परमात्मा से kucha n kucha चाहते हैं/शुद्ध भक्ति तो निष्काम होती है/उसमें किसी लाभ के नाप-तौल की आकांक्षा नहीं रहती/कहा गया है कि”मनुष्य को चाहिए कि परमेश्वर कि दिव्य प्रेमाभक्ति किसी भौतिक लाभ या सकामकर्म द्वारा फल अथवा मनोधर्म द्वारा लाभ की इच्छा से रहित होकर करे/ यही शुद्ध भक्ति है/”
उपरोक्त चार प्रकार के भक्तों में जो भी ज्ञानी है और भक्ति में लगे रहते है भगवान के अनुसार वह सर्वश्रेष्ठ है/ज्ञान की लगातार खोज करते रहने से मनुष्य को यह अनुभूति होती है कि उसका स्व यानि आत्मा उसके भौतिक शरीर से सर्वथा भिन्न है/इस पथ पर निरंतर चलते रहने पर उसे निर्विशेष ब्रम्ह तथा परमात्मा का ज्ञान प्राप्त होता है/जब वह पूर्णतया शुद्ध हो जाता है तो उसे इश्वर के नित्य दास के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति की अनुभूति होती है/इस प्रकार शुद्ध भक्त की संगतीसेआर्त,जिज्ञासु ,धन का इच्छुक तथा ज्ञानी स्वयं शुद्ध हो जाते है/
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